नित अभ्यास से दर्शन कर सकते हैं ईश्वर का 

सभी शास्त्र  कहते हैं कि बिना भगवान को प्राप्त किये मुक्ति नहीं मिल सकती है। इसलिए भगवान की तलाश के लिए कोई व्यक्ति मंदिर जाता है तो कोई मस्जिद, कोई गुरूद्वारा, तो कोई गिरजाघर। लेकिन इन सभी स्थानों में जड़ स्वरूप भगवान होता है। अर्थात ऐसा भगवान होता है जिसमें कोई चेतना नहीं होती है।
असल में भगवान की चेतना तो अपने भक्तों के साथ रहती है इसलिए मंदिर में हम जिस भगवान को देखते हैं वह मौन होकर एक ही अवस्था में दिखता है। जब हमारी चेतना यानी इन्द्रियां अपने आस-पास ईश्वर को महसूस करने लगती है तब हम जहां भी होते हैं वहीं ईश्वर प्रकट दिखाई देता है। उस समय भगवान को ढूंढने के लिए मंदिर या किसी तीर्थ में जाने की आवश्यकता नहीं होती है।
जब व्यक्ति इस अवस्था को प्राप्त कर लेता है तब व्यक्ति के साथ चल रही भगवान की चेतना व्यक्ति के मंदिर में प्रवेश करने पर मंदिर में मौजूद ईश्वर की प्रतिमा में समा जाती है और मूक बैठी मूर्ति बोलने लगती है। यह उसी प्रकार होता है जैसे मृत शरीर में आत्मा के प्रवेश करने पर शरीर में हलचल होने लगती है। शरीर की क्रियाएं शुरू हो जाती है।
मंदिर में विराजमान मूर्ति वास्तव में एक मृत शरीर के समान है। मृत की पूजा करें अथवा न करें उसे कोई फर्क नहीं पड़ता। हमारी श्रद्धा और भक्ति की अनुभूति वही कर सकता है जिसमें चेतना हो प्राण हो। इसलिए तीर्थों में भटकने की बजाय जिस देवता की उपासना करनी हो उसे अपनी आत्मा से ध्यान करें उनकी आत्मा अर्थात परमात्मा से संपर्क करें, परमात्मा की पूजा करें तो, जो फल वर्षों मंदिर यात्रा से नहीं मिल सकता, वही फल कुछ पल के ध्यान से मिल सकता है।
कबीर दास जी ने इसी बात को अपने दोहे में कहा है
मोको कहाँ ढूंढे रे बंदे ,मैं तो तेरे पास में
ना तीरथ में ना मूरत में, ना एकांत निवास में
ना मंदिर में ना मस्जिद में ,ना काशी कैलास में
मोको कहाँ ढूंढे रे बंदे ,मैं तो तेरे पास में
ना मैं जप में ना मैं तप में, ना मैं ब्रत उपबास में
ना मैं किरिया करम में रहता नहीं जोग सन्यास में
मोको कहाँ ढूंढे रे बंदे ,मैं तो तेरे पास में।।
कबीर दास जी ने कहा है कि भगवान को कहीं ढूंढने की जरूरत नहीं है वह हमेशा अपने भक्तों के साथ रहते हैं। इन्हें पाने के लिए तीर्थस्थलों में भटकने की जरूरत नहीं है। मन से ध्यान करके देखिए ईश्वर नजर आ जाएंगे। कभी ध्यान लगाकर देखिए ईश्वर में मन जितना स्थिर होगा ईश्वर की छवि उतनी साफ सामने नज़र आएगी। जब तक ध्यान ईश्वर में पूरी तरह रम नहीं जाता तब तक धुंधली छवि चित्त में आती जाती रहती है।
कई संत महापुरूषों ने ईश्वर को अपने सामने स्पष्ट देखा है। उन्हें ईश्वर को देखने में इसलिए कामयाबी मिली क्योंकि उनका ध्यान हर चीज का हट कर एक स्थान पर केन्द्रित हो गया था। अगर हम भी नित ईश्वर में ध्यान केन्द्रित करने का प्रयास करें तो संत महात्माओं की तरह ईश्वर के दर्शन हम भी प्राप्त कर सकते हैं, क्योंकि ईश्वर कहीं दूर नहीं हमारे आस-पास है और हर पल हमें देख रहा है।

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Pradesh Samna
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