मोदी के रोड शो के बाद गुजरात में डर के आगे बीजेपी की जीत पक्की मान लें

गुजरात, प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का रोड शो (Modi Road Show) अब ‘डर के आगे जीत’ वाले फॉर्मूले पर फिट होता जा रहा है. मोदी और अमित शाह के रोड शो ज्यादातर चुनावों में होते हैं. पश्चिम बंगाल में भी हुए थे – और तब बढ़ चढ़ कर ये बताने की होड़ लग रही थी कि वैसे रोड शो तो कहीं भी, कभी भी हुए ही नहीं.

बंगाल के लोगों पर तो असर नहीं पड़ा, लेकिन आखिरी दौर में बनारस के लोग तो सारे गिले शिकवे भूल कर मोदी के नाम पर मुहर लगा दिये. जमाना बदल गया है, लिहाजा मुहर लगाने को ईवीएम का बटन दबाना भी समझ सकते हैं – लेकिन समझने वाली बात ये है कि लोगों ने मोदी का मान रख दिया.

जैसे मोदी की रावण से तुलना किये जाने के बाद गुजरात के लोग मान रखने की बात कर रहे हैं, मोदी भी
मल्लिकार्जुन खड़गे का नाम ले लेकर लोगों को ये भूलने नहीं देना चाहते. ये बात वो अच्छी तरह जानते हैं कि अखबार वालों के पूछने पर तो लोग मोदी का मान रखने की बात करेंगे, लेकिन हो सकता है बटन दबाने की बारी आये तो ध्यान भटक भी सकता है. आखिर आम आदमी पार्टी और कांग्रेस भी तो जोर जोर से लगातार गुजरात के लोगों को महंगाई और बेरोजगारी की बातें रटाने की कोशिश कर ही रहे हैं.

मोदी का रोड शो तो पहले चरण की वोटिंग से तीन दिन पहले भी हुआ था. सूरत में. लंबा भी था. और मार्च में ही अहमदाबाद में भी हुआ था. यूपी सहित पांच विधानसभा चुनाव के नतीजे आने के ठीक अगले ही दिन – लेकिन अभी वाला ज्यादा अहम है. अहम इसलिए भी क्योंकि ये रोड शो वैसे ही हुआ है, जैसे चट मंगनी, पट ब्याह की तैयारी बतायी जाती है.

सबसे बड़ा सवाल भी यही है कि आखिर हड़बड़ी किस बात की थी? इंडियन एक्सप्रेस की रिपोर्ट के मुताबिक, स्थानीय प्रशासन के पास प्रधानमंत्री के रोड शो की पहले से कोई जानकारी नहीं थी. मोदी का रोड शो को लेकर जिला प्रशासन को सिर्फ एक दिन पहले ही बताया गया था – और पीएम रूट के लिए आनन फानन में सुरक्षा व्यवस्था करनी पड़ी थी.

ये रोड शो अहमदाबाद शहर के करीब तीन दर्जन इलाकों से होता हुआ निकला. रोड शो के जरिये अहमदाबाद और गांधीनगर की दर्जन भर विधानसभा सीटों को टारगेट किया गया था. ये ठीक है कि बीजेपी (BJP) के पास तमाम संसाधन हैं. कार्यकर्ताओं की फौज है. चुनावों के दौरान सत्ता में होने का उतना फायदा तो नहीं मिलता, लेकिन कोई घाटे वाली बात भी नहीं होती.

50 किलोमीटर लंबा रोड शो कोई मामूली बात नहीं होती. बाइक रैली निकालने और रोड शो करने में फर्क होता है. ये जरूर है कि प्रधानमंत्री के होने से कई चीजें ऑटो मोड में चली जाती हैं और प्रोटोकॉल के हिसाब से सब होने लगता है – और जब मोदी गुजरात में हों तो फिर कहना ही क्या?

ये गुजरात (Gujarat Election 2022) मॉडल ही है, जिसके बूते 2014 में मोदी ने देश भर में वोट मांगा और दिल्ली की गद्दी पर बैठने में कामयाब हुए, लेकिन लगता है अब गुजरात मॉडल फीका पड़ने लगा है. अब गुजरात को भी मोदी की ही जरूरत पड़ रही है – और ये पहला मौका भी नहीं हैं.

2017 में भी मोदी को ही मोर्चे पर उतरना पड़ा था. तब कांग्रेस का ‘विकास गांडो थायो छे’ बीजेपी को माइग्रेन की तरह परेशान करने लगा था. पहले से ही डेरा डाले अमित शाह को जब कुछ नहीं सूझा तो प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को आगे कर दिये.

मोदी ने कहा तो तभी था – ‘हूं छू गुजरात, हूं छू विकास’, लेकिन पहले चरण की वोटिंग के दौरान जब रोड शो चल रहा था तो लगा जैसे वो फिर से कह रहे हों – ‘हूं छू गुजरात मॉडल, हूं छू विकास मॉडल!’

ये वो चीज है जिसे बाकियों से कहीं ज्यादा बीजेपी महसूस कर रही है. यही वो डर है जिसके आगे जीत की बात की जाती है. जाहिर है, बीजेपी भी मोदी का रोड शो डर के चलते ही करा रही होगी. बंगाल के अपवाद को छोड़ दें, तो मोदी के रोड शो के बाद बीजेपी की जीत पक्की होती है.

यूपी चुनाव 2022 के दौरान भी वाराणसी और आसपास की कई सीटों को लेकर बीजेपी काफी डरी हुई थी. करीब करीब वैसा ही डर महसूस किया जा रहा था जैसा 2017 के विधानसभा चुनाव के आखिरी चरण में देखा गया था – और दोनों ही मौकों पर मोदी मैजिक ही काम आया. योगी आदित्यनाथ भले ही प्रधानमंत्री पद के लिए मोदी से प्रतियोगिता करते हों, लेकिन मोदी के ही संसदीय क्षेत्र की दो विधानसभा सीटों पर स्थानीय विधायकों से लोगों के मन में भारी नाराजगी भरी पड़ी थी.

मोदी का रोड शो कब जरूरी होता है?

50 किलोमीटर की पुष्पांजलि यात्रा देखी है कभी!

अहमदाबाद में मोदी के रोड शो को लेकर उनके सपोर्टर ऐसा ही महसूस कर रहे थे. और ऐसा उनके मन में ही नहीं चल रहा था. टीवी का कैमरा देखते ही मोदी-मोदी करते, सारा प्यार उंड़ेल भी दे रहे थे.

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने गुजरात के लोगों से लगे हाथ आम चुनाव 2024 के लिए भी वोट मांग लिया है.

रोड शो के रास्ते में महान विभूतियों की मूर्तियों पर पुष्पांजलि भी होती रही – सरदार वल्लभभाई पटेल, दीनदयाल उपाध्याय, नेताजी सुभाष चंद्र बोस… मोदी ने बारी बारी सभी की मूर्तियों पर पुष्पांजलि अर्पित की गयी – लेकिन लोग तो सिर्फ मोदी मोदी करते रहे.

ये रोड शो तो बीजेपी ने प्लान ही ये सोच कर किया था. और सब कुछ उम्मीदों के मुताबिक ही हुआ भी. कोई माने न माने देखने को तो वोट डालने वालों ने भी देखा ही होगा – ये बात अलग है कि अंग्रेजों के जमाने के नियमों को ढो रहे चुनाव आयोग को भौगोलिक दूरी ही महत्वपूर्ण लग रही होगी, तकनीक को अभी वहां तक पहुंचने में वक्त लगेगा. पहले चरण की वोटिंग से तीन दिन पहले भी मोदी का रोड शो हुआ था. 27 नवंबर को सूरत और दक्षिण गुजरात में. सूरत की पाटीदार बहुल आबादी से गुजरता हुआ ये रोड शो आगे बढ़ा और वारछा में मोदी की एक रैली भी हुई.

नरोदा पाटिया सर्कल से जब मोदी का काफिल गुजरा तो वहां बीजेपी उम्मीदवार पायल कुलकर्णी के साथ निवर्तमान विधायक बलराम थावनी और पूर्व विधायक माया कोडनानी भी मौजूद थीं – मोदी का काफिला वहां रुका तो नहीं, लेकिन एक जरूरी संदेश जरूर छोड़ गया.

अगर रोड शो उस सर्कल पर रुका होता तो संदेश अलग होता, नहीं रुकने का मैसेज अलग होता है. माया कोडनानी नरोदा पाटिया दंगे में आरोपी रह चुकी हैं, लेकिन बाद में अदालत से बरी हो गयी थीं. नरोदा से बीजेपी उम्मीदवार पायल कुलकर्णी भी नरोदा पाटिया केस के एक सजायाफ्ता की बेटी हैं. और उनको मौजूदा विधायक बलराम थावनी का टिकट काट कर उम्मीदवार बनाया गया है.

रोड शो के समानांतर देखें तो 2002 के गुजरात दंगों का चुनावों में जिक्र होना भी बीजेपी की सोची समझी रणनीति ही है. अब अगर अमित शाह कह रहे हैं कि दंगाइयों को सबक सिखाया गया तो उसमें भी एक संदेश ही है. चाहें तो इसे बिलकिस बानो केस के बलात्कारियों को मिठाई खिलाये जाने के वाकये से भी कनेक्ट कर सकते हैं. बीजेपी अपने राजनीतिक विरोधियों के निशाने पर रही है – और कुछ मुद्दे ऐसे होते हैं जिसमें खास समय पर निशाने पर होना फायदे का ही सौदा साबित होता है.

कहते हैं 2005 के बाद ये पहला मौका रहा जब नरेंद्र मोदी नरोदा में चुनाव कैंपेन करने गये हों. 2005 में ही अहमदाबाद नगर निगम के लिए भी मोदी ने रोड शो किया था. लेकिन अब मोदी वहां प्रधानमंत्री के रूप में होते हैं. जाहिर है बीजेपी के पक्ष में माहौल बनाने के मकसद से ही मोदी के रोड शो का रूट फाइनल किया गया होगा.

ध्यान देने वाली बात ये है कि बीजेपी के रणनीतिकारों ने रोडशो के रूट में जमालपुर खड़िया और दानिलिमदा जैसे इलाके भी शामिल किये – और घाटलोडिया और नारपुर जैसे बीजेपी के गढ़ भी. जाहिर है सब कुछ अमित शाह के निर्देशन में ही तैयार हुआ होगा. वैसे भी वो शतरंज के कुशल खिलाड़ी की तरह कई कदम आगे की सोच कर चालें चलते हैं.

गुजरात के लिए मोदी का संदेश

अपने खिलाफ कांग्रेस नेताओं की टिप्पणियों का प्रसंग छेड़ कर प्रधानमंत्री मोदी जवाबी कार्रवाई तो पहले ही कर चुके थे, रोड शो शुरू करने से पहले भी एक जनसभा में मल्लिकार्जुन खड़गे का नाम लेकर अपनी बात कही, ‘मैं खड़गे का सम्मान करता हूं… वो वही कहेंगे जो कहने के लिए कहा गया है… कांग्रेस को नहीं पता कि ये राम भक्तों का गुजरात है… रामभक्तों की भूमि पर उनको सौ सिर वाला रावण कहने के लिए कहा गया.’

लेकिन फिर वो मल्लिकार्जुन खड़गे को भी घेर लिये. बोले, अगर वो लोकतंत्र में यकीन रखते तो इस स्तर तक कभी नहीं जाते… वो एक परिवार में भरोसा करते हैं, न कि लोकतंत्र में… वो उस एक परिवार को खुश करने के लिए कुछ भी कर सकते हैं – और वो परिवार ही उनके लिए सब कुछ है, लेकिन लोकतंत्र नहीं.

लगे हाथ फिर से कांग्रेस की सरकारों को कठघरे में खड़ा करने की कोशिश की. लोगों से अपील की कि वे बीजेपी को ही सत्ता फिर से सौंपें, न कि वो गलती दोहरायें जो देश के आजाद होने के बाद हुई. ये बात मोदी ऐसे समझाते रहे हैं, अगर जवाहरलाल नेहरू की जगह सरदार पटेल को देश का पहला प्रधानमंत्री बनाया गया होता तो देश की तस्वीर कुछ और होती.

साबरकांठा के हिम्मतनगर में मोदी ने ये भी समझाया कि गुजरात और देश में बीजेपी की सरकारों की जरूरत क्यों है? और वो भी सिर्फ पांच साल के लिए नहीं. बोले, अब से 25 साल बाद जब देश स्वतंत्रता के सौ साल का जश्न मनाएगा, तो ऐसे समय के लिए देश की मजबूत नींव रखने के लिए बीजेपी की बहुत जरूरी है.

रोड शो के पहले और उसके बाद की रैली में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के भाषण पर ध्यान दें तो भी कई बातें अलग अलग समझे आती हैं. ऐसा लगा जैसे प्रधानमंत्री मोदी विधानसभा के साथ ही दो साल बाद होने वाले
आम चुनाव
के लिए भी अभी से लोगों को अपनी बात समझा देना चाहते हों – ताकि बार बार हड़बड़ी में ऐसे रोड शो और रैली मजबूरी में न करनी पड़े.

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