बिहार की इकोनॉमी में बड़ा उछाल! 20 साल पहले क्या थी स्थिति, और नीतीश कुमार के शासन में कैसे आया सुधार?
2025 का सबसे बड़ा राजनीतिक महासंग्राम शुरू हो गया है. 6 नवंबर यानी आज से बिहार विधानसभा चुनाव के पहले फेज के मतदान शुरू हो गए हैं. उसके बाद 12 नवंबर को आखिरी यानी दूसरे चरण का मतदान होगा. 14 नवंबर को बिहार चुनाव के नतीजे पूरे देश के सामने होंगे. 74 वर्षीय मुख्यमंत्री और जेडी(यू) अध्यक्ष नीतीश कुमार के लिए ये चुनाव उनके दशकों लंबे राजनीतिक जीवन का सबसे चुनौतीपूर्ण और निर्णायक चुनाव हो सकता है. 9 बार मुख्यमंत्री रह चुके और हाल ही में स्वास्थ्य संबंधी समस्याओं से जूझ रहे नीतीश लगभग दो दशकों से बिहार की राजनीति में छाए हुए हैं.
2014 और 2015 के बीच जीतन राम मांझी के नौ महीनों को छोड़कर, नीतीश को अक्सर अपने 20 साल के कार्यकाल में शासन की बुनियादी सुविधाओं की बहाली का श्रेय दिया जाता है. 2016 तक लगभग हर गांव तक उन्होंने बिजली पहुंचाने का काम किया. पूरे बिहार में सड़क नेटवर्क को दुरुस्त किया. राज्य में कानून व्यवस्था स्थापित करने का सफलतापूर्वक प्रयास किया और स्कूली शिक्षा और स्वास्थ्य सेवा में भी बेहतर काम किया.
उसके बाद भी देश में बिहार को एक बिमारू राज्य का ही दर्जा प्राप्त है. बीते दो दशकों में राज्य की जीडीपी में तेजी तो देखने को मिली, लेकिन जिस तरह से यूपी, राजस्थान, मध्यप्रदेश और देश के दूसरे राज्य जो प्रगति और तेजी दिखाई, वैसी बिहार कभी नहीं दिखा सका. यही कारण है कि बिहार प्रति व्यक्ति आय के मामले में देश के दूसरे बाकी राज्यों से काफी पीछे है. मैन्युफैक्चरिंग के मामले में बिहार का योगदान ना के बराबर है. जिस तरह का औद्योगिकरण पड़ोसी राज्यों जैसे यूपी और दूसरे राज्यों में देखने को मिला, वो बिहार में नहीं हुआ. यहां तक कि शहरी करण के मामले में भी बिहार काफी पीछे है.
आइए समझने की कोशिश करते हैं कि नीतीश कुमार के 20 साल के सीएम काल में बिहार की इकोनॉमी में किस तरह का सुधार देखने को मिला है. क्या बिहार उसी जगह पर तो नहीं खड़ा जब नीतीश कुमार पहली बार सीएम बने थे? राज्य के लोगों की प्रति व्यक्ति आय में कितनी बढ़ोतरी हुई? आइए इन सवालों के जवाबों को जरा विस्तार से और आंकड़ों के साथ समझने की कोशिश करते हैं…
नीतीश कुमार के शासनकाल में बिहार की इकोनॉमी का प्रदर्शन?
बिहार को लंबे समय से भारत के “बीमारू राज्यों” में से एक माना जाता रहा है. जहां एक ओर देश के दूसरे बिमारू राज्यों में थोड़ी बहुत प्रगति की है. वहीं बिहार घोर आर्थिक और सामाजिक असमानताओं के साथ स्पष्ट रूप से अलग राज्य बना हुआ है. बिहार के इकोनॉमिक सर्वे 2024-25 के अनुसार, राज्य की जीडीपी जिसे आधार वर्ष 2011-12 मानकर वर्तमान मूल्यों पर मापा गया है, 3.5 गुना बढ़कर 2011-12 में 2.47 लाख करोड़ रुपए से 2023-24 में 8.54 लाख करोड़ रुपए हो गई है. बिहार ने शिक्षा, स्वास्थ्य और बुनियादी सुविधाओं के क्षेत्र में अंतर को कम करने में भी उल्लेखनीय प्रगति की है. इसके ग्रॉस इनरोलमेंट रेश्यो (जीईआर), जन्म के समय लिंगानुपात, जीवन प्रत्याशा, शिशु मृत्यु दर, और बिजली, पेयजल एवं स्वच्छता की उपलब्धता में उल्लेखनीय सुधार हुआ है और यह राष्ट्रीय औसत से थोड़ा ही नीचे है.
कितनी है प्रति व्यक्ति आय?
फिर भी, प्रति व्यक्ति आय के मामले में, यह भारत का सबसे गरीब राज्य बना हुआ है. इसका कारण विकास की गति से पहले की प्रारंभिक आय का बहुत कम स्तर और हाई पॉपुलेशन ग्रोथ रेट है, जिसने हाई जीडीपी को प्रति व्यक्ति आय में वृद्धि में परिवर्तित होने से रोक दिया. भारत की प्रति व्यक्ति आय 1.89 लाख रुपये को पार कर गई है, लेकिन बिहार की प्रति व्यक्ति आय 60,000 रुपये से थोड़ी ज़्यादा है, जो राष्ट्रीय औसत के एक तिहाई से भी कम है. राज्य के भीतर भी, यह अंतर बहुत ज्यादा है. राजधानी पटना में प्रति व्यक्ति आय 2,15,049 रुपए है, जो शिवहर जैसे अन्य ज़िलों से लगभग चार गुना ज़्यादा है, जहां यह मुश्किल से 33,399 रुपये तक पहुंचती है. ये आंकड़े राज्य के शहरी केंद्र में धन और अवसरों के कंसंट्रेशन को दर्शाते हैं, जिससे ग्रामीण बिहार को बराबरी करने में मुश्किल हो रही है.
शहरीकरण और औद्योगीकरण दोनों में पीछे
भारत में सबसे कम शहरीकरण दरों में से एक होने के बावजूद, बिहार के कस्बों और शहरों में इसकी आबादी का केवल एक अंश ही निवास करता है. जहां राष्ट्रीय शहरीकरण दर 2001 में 27.9 फीसदी से बढ़कर 2025 में 35.7 फीसदी हो गया, वहीं इसी अवधि में बिहार में यह दर केवल 10.5 फीसदी से बढ़कर 12.4 फीसदी देखने को मिला. शहरी विकास की धीमी गति ने औद्योगिक विकास को सीमित कर दिया है, रोज़गार सृजन में बाधा उत्पन्न की है और अधिकांश आबादी को कृषि आजीविका तक सीमित कर दिया है.
तेजी से औद्योगीकरण कर रहे अन्य राज्यों के विपरीत, बिहार का मैन्युफैक्चरिंग सेक्टर राज्य के जीडीपी के 5-6 फीसदी पर स्थिर बना हुआ है, जो दो दशक पहले के पैटर्न की याद दिलाता है. यह ठहराव न केवल राज्य-स्तरीय चुनौतियों को दर्शाता है, बल्कि असमान औद्योगिक विकास के राष्ट्रीय रुझान को भी दर्शाता है. सीमित कारखाना रोजगार कौशल विकास को रोकका है, जिससे कामकाजी उम्र के निवासियों का एक बड़ा हिस्सा रोजगार की तलाश में दूसरे राज्यों में पलायन करने को मजबूर होता है.
बेरोजगरी क्यों बनी हुई सबसे बड़ी चिंता?
बिहार भारत की सबसे युवा आबादी वाले देशों में से एक है, जहां आधे से ज़्यादा निवासी 15-59 वर्ष की कामकाजी आयु वर्ग में हैं. फिर भी, गुणवत्तापूर्ण रोजगार के अवसर कम ही हैं. सरकारी नौकरी अभी भी प्राथमिक आकांक्षा बनी हुई है, जिससे कई युवा बिहारी या तो कम रोजगार में हैं या बेरोजगार हैं. युवा बेरोजगारी के मामले में राज्य राष्ट्रीय स्तर पर नौवें स्थान पर है, जो एक विरोधाभास को उजागर करता है. शिक्षा प्रगति की आधारशिला है, फिर भी बिहार में स्कूल छोड़ने की दर चिंताजनक है. छात्रों का एक बड़ा हिस्सा मिडिल स्कूल से आगे नहीं बढ़ पाता, जिससे कम सामाजिक गतिशीलता, सीमित कौशल और रोजगार की कम संभावनाओं का एक साइकिल बन जाता है. शिक्षा का यह अंतर राज्य के आर्थिक ठहराव को और बढ़ा देता है, जिससे बिहार के युवा भारत की विकास गाथा में पूरी तरह से भाग नहीं ले पाते.