हिंदुत्व-राष्ट्रवाद से लेकर संगठन तक… 45 साल में BJP के 5 सियासी ब्रह्मास्त्र, जिसके चक्रव्यूह को नहीं तोड़ पा रहा विपक्ष
बीजेपी की बुनियाद आज ही के दिन पड़ी थी. छह अप्रैल 1980 को जनसंघ बैकग्राउंड वाले नेताओं ने जनता पार्टी से अलग होकर बीजेपी का गठन किया था. 45 साल के सियासी सफर में तीन से 300 पार सांसद से होते हुए बीजेपी आज अपने सियासी इतिहास के सबसे बुलंद मुकाम पर है. देश में लगातार तीसरी बार बीजेपी की सरकार है तो आधे से ज्यादा राज्यों में अपने दम पर सत्ता में काबिज है. शून्य से शिखर तक पहुंचने की उसकी यात्रा लंबे संघर्ष और उतार-चढ़ाव से भरी रही है.
देश की सियासत में बीजेपी का सियासी कद जैसे-जैसे मजबूत होता गया, वैसे-वैसे कांग्रेस और विपक्षी पार्टियों का सफाया होता गया. 1980 में जन्मी बीजेपी आज देश की सबसे बड़ी सियासी ताकत बन चुकी है. पिछले 11 सालों में बीजेपी ने कई चुनावी और सियासती इम्तिहानों में दूसरी पार्टियों के मुक़ाबले बेहतर करके दिखाया है. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के अगुवाई में बीजेपी ने कई इतिहास रचे हैं. बीजेपी के विजय रथ रोकने की काट न ही कांग्रेस तलाश पा रही है और न ही छत्रप. ऐसे में सवाल उठता है कि आखिर क्या वजह है कि बीजेपी की कौन सी राजनीतिक ताकत है, जिसके चक्रव्यूह को विपक्ष तोड़ नहीं पा रहा.
बीजेपी की मजबूत सोशल इंजीनियरिंग
बीजेपी को एक जमाने में ‘ब्राह्मण-बनियों’ की पार्टी कहा जाता था. जेपी ने अपने संगठनात्मक ढांचे बदलाव कर एक मजबूत सोशल इंजीनियरिंग बनाई, जिसने बीजेपी को राष्ट्रीय फलक पर एक मजबूत पहचान दिलाई. बीजेपी ने अपने ऊपर लगे सवर्णों की पार्टी के टैग को हटाने के लिए काफी मशक्कत करनी पड़ी है. इसी का नतीजा ये है कि पार्टी के शीर्ष नेतृत्व से लेकर पार्टी के कोर वोट बैंक तक में भी दलितों-पिछड़ों की भरपूर नुमाइंदगी है. बीजेपी के सामाजिक दायरे को बढ़ाने के लिए संघ ने भी अहम रोल अदा किया है.
बीजेपी ने अपने सियासी वनवास को खत्म करने के लिए 2014 के लोकसभा चुनाव में सवर्ण वोटर्स को साधे रखते हुए ओबीसी और दलित समुदाय को जोड़कर एक नई सोशल इंजीनियरिंग तैयार करने का काम किया था. जातियों में बिखरे हुए हिंदू वोटों को बीजेपी ने हिंदुत्व की छतरी के नीचे एकजुट किया. साल 2014 में नरेंद्र मोदी की सरकार बनने के बाद से ओबीसी समुदाय का बड़ा तबका अभी बीजेपी के साथ है और पार्टी भी अपनी हिंदुत्व के सियासत के जरिए उनके विश्वास को बनाए रखने की कवायद में है.
बीजेपी ने सवर्ण वोटों पर अपनी पकड़ रखते हुए तमाम जातियों को जोड़ा ही नहीं बल्कि उन्हें राजनीतिक हिस्सेदारी भी दी. इस तरह बीजेपी की सोशल इंजीनियरिंग की काट विपक्ष तलाश नहीं आ पा रहा है जबकि कांग्रेस से लेकर सपा, आरजेडी जैसी तामा पार्टियां बीजेपी को दलित-ओबीसी विरोधी कठघरे में खड़ी करने की कवायद में जुटी है. इसके बाद भी दलित-ओबीसी का बड़ा तबका बीजेपी के साथ खड़ा है.
बीजेपी की संगठनात्मक ताकत
बीजेपी की सफलता के पीछे उसकी संगठनात्मक ताकत, जो जमीनी स्तर पर काम करता है. आरएसएस बीजेपी का अभिभावक है, इसलिए जनसंघ के दौर से ही उसकी मदद करता रहा. संघ के काम करने का अपना तरीका है. संगठन की दृष्टि से बीजेपी ने भारत को 36 राज्यों में बांटकर अपना संगठन बनाया है. बीजेपी का राष्ट्रीय स्तर से लेकर बूथ स्तर तक मजबूत संगठन है और कैडर है. बीजेपी के संगठन को देखें तो दो हिस्सों में बंटा हुआ है, जिसमें एक राष्ट्रीय कार्यकारिणी और दूसरा राष्ट्रीय परिषद.
बीजेपी की राष्ट्रीय कार्यकारिणी ही सर्वोच्च है, जिसे बीजेपी ने संसदीय बोर्ड और केंद्रीय चुनाव समीति में बांटकर रखा है. ये दोनों समितियां ही बीजेपी की नीति निर्धारण तय करती है, चुनाव से लेकर सरकार गठन तक की प्रक्रिया में अहम रोल होता है. बीजेपी का राष्ट्रीय परिषद एक तरह से संगठनात्मक काम है, जो राष्ट्रीय स्तर से लेकर बूथ स्तर तक है. प्रदेश संगठन, जिला संगठन, स्थानीय कमेटी, ग्राम, शहर और बूथ कमेटी. इसके अलावा बीजेपी के सदस्य.
बीजेपी का संगठन ही पार्टी की ताकत है. बीजेपी जैसे मजबूत और जमीनी स्तर का संगठन किसी भी पार्टी के पास नहीं है. जमीनी स्तर पर काम और विपक्ष की कमजोरी को भुनाने की रणनीति को माना जा रहा है. 2024 के लोकसभा चुनाव में बीजेपी को 240 सीटें मिली थीं, जो 2019 की 303 सीटों से कम थीं. विपक्ष ने इसे कमजोरी माना, लेकिन इसके बाद हुए विधानसभा चुनावों ने साबित कर दिया कि बीजेपी का जनाधार अब भी मजबूत है. पार्टी ने न सिर्फ अपने दम पर जीत हासिल की, बल्कि एनडीए के सहयोगियों के साथ मिलकर विपक्ष को चारों खाने चित करने में भी माहिर है.
बीजेपी का हिंदुत्व और राष्ट्रवाद
बीजेपी के शून्य से शिखर तक पहुंचने में हिंदुत्व आर राष्ट्रवाद के एजेंडा का अहम रोल रहा है. हिंदुत्व की सियासत को बीजेपी ने देश में इस कदर स्थापित कि अब सेकुलर कही जाने वाली पार्टियों में भी बीजेपी से बड़ी लकीर खींचने की होड़ है. राम मंदिर आंदोलन से बीजेपी ने हिंदुत्व की धार दिया तो फिर पीछे मुंडकर नहीं देखा. अयोध्या के साथ मथुरा और काशी को भी बीजेपी ने अपने एजेंडा का हिस्सा बना लिया. बीजेपी ने हिंदुत्व की विचारधारा को धार देकर अलग-अलग जातियों में बिखरे हुए हिंदुओं को एकजुट किया. इसके अलावा धर्मातंरण पर नकेल कसी तो गौ-रक्षा पर भी सख्त कानून बनाकर हिंदुत्व का धार दिया.
राष्ट्रवाद का मुद्दा भी बीजेपी के लिए सियासी संजीवनी रहा है. जनसंघ के दौर से ही बीजेपी राष्ट्रवाद को सियासी हथियार के तौर पर इस्तेमाल करती रही है. बीजेपी ने इसे धार देने के लिए पहले एक देश, एक विधान, एक निशाना का नारा दिया. मोदी ने जम्मू-कश्मीर से धारा 370 को हटाकर श्यामा प्रसाद मुखर्जी के सपने को साकार किया. इतना ही नहीं पाकिस्तान पर नकेल ही नहीं कसी बल्कि सर्जिकल और एयर स्ट्राइक करके भी दिखाया. कश्मीर से 370 हटाकर बीजेपी ने राष्ट्रवाद की नींव पर अपनी लोकप्रियता की इमारत और बुलंद कर दी. ये वो वायदा है जिसे पार्टी जनसंघ के जमाने से करती आ रही थी. हिंदुत्व और राष्ट्रवाद के मुद्दे पर बीजेपी को विपक्ष काउंटर तक नहीं कर पाता है.
बीजेपी के गठबंधन की राजनीति
बीजेपी ने अपने 45 साल के सियासी सफर में शून्य से शिखर तक पहुंचने में अपने वैचारिक विरोधी लेफ्ट जैसे दलों के साथ भी हाथ मिलाकर सियासी प्रयोग किया तो कांग्रेस को सत्ता में आने से रोकने के लिए जनता दल का साथ दिया और जम्मू-कश्मीर में सरकार बनाने के लिए पीडीपी और नेशनल कॉफ्रेंस जैसे दलों के साथ भी हाथ मिलाने से गुरेज नहीं किया. बीजेपी ने इस तरह से गठबंधन की राजनीति को धार देकर सियासत करती रही है.
बीजेपी को गठबंधन की राजनीति की तरफ जनसंघ के दौर में ही अटल बिहारी बाजपेयी लेकर चले गए थे, जब जनसंघ के लोगों के लिए देश की राजनीति अछूत हुआ करती थी. आपातकाल के दौर में जनसंघ ने समाजवादी, लेफ्ट नेताओं के साथ हाथ मिला और जनता पार्टी में खुद को विलय कर दिया. इसके बाद बीजेपी सियासी वजूद में तो 90 के दशक में जनता दल को समर्थन देकर सरकार बनवाई. इतना ही नहीं यूपी में मुलायम सिंह यादव को सत्ता से बाहर करने के लिए बसपा को समर्थन देकर मायावती की सरकार बनवाई. बसपा के साथ बीजेपी ने तीन बार दिया. ऐसे ही बिहार में लालू यादव को बाहर करने के लिए नीतीश कुमार से हाथ मिलाया.
1998 में अटल बिहारी वाजपेयी ने पंजाब से लेकर आंध्र प्रदेश और तमिलनाडु के क्षेत्रीय दलों के साथ गठबंधन कर एनडीए का गठन किया. इस गठबंधन की राजनीति से ही बीजेपी को विस्तार मिला और अटल बिहारी वाजपेयी तीन बार पीएम बने. इसके बाद नरेंद्र मोदी ने भी गठबंधन की राजनति को बनाए रखा. उन्होंने जातीय आधार वाले छोटे-छोटे दलों को साथ लेकर चल रहे हैं और इसी गठबंधन की राजनीति के बदौलत लगातार तीसरी बार पीएम हैं. बीजेपी ने पूर्वोत्तर में भी अपना गठबंधन बना रखा है. बीजेपी के इस गठबंधन की राजनीति को काउंटर करने के लिए विपक्ष लगातार कोशिश कर रहा है, लेकिन 11 सालों से मात नहीं दे सका.
विपक्षी दल नहीं तोड़ पा रहे चक्रव्यूह?
विपक्षी दलों की तमाम कोशिशों के बावजूद बीजेपी के सियासी चक्रव्यूह तोड़ना उनके लिए नामुमकिन साबित हो रहा. 2024 के लोकसभा चुनाव में कांग्रेस के अगुवाई वाले विपक्ष इंडिया गठबंधन ने कुछ हद तक एकजुटता दिखाई, लेकिन विधानसभा चुनावों में यह बिखर गया. हरियाणा में कांग्रेस अकेले लड़ी और हारी, तो महाराष्ट्र में गठबंधन के बावजूद बीजेपी के अगुवाई वाले एनडीए से पार नहीं पा सकी. दिल्ली में आप और कांग्रेस का तालमेल न बन पाना भी बीजेपी के लिए वरदान साबित हुआ. बीजेपी की सियासी सफलता उसकी आक्रामक रणनीति, पीएम नरेंद्र मोदी की लोकप्रियता और विपक्ष की आपसी फूट है.
बीजेपी हर चुनाव को गंभीरता से लेती है, चाहे निकाय चुनाव हो या फिर लोकसभा और विधानसभा का चुनाव. बीजेपी हर चुनाव को पूरी ताकत और मशक्कत के साथ लड़ती है. इतना ही नहीं बीजेपी इस बात को जानते हुए भी कि वो चुनाव नहीं जीत रही, लेकिन आखिर दम तक ताकत लगाती है. बीजेपी सियासी नैरेटिव सेट करने से लेकर जमीनी पर संघर्ष करने से पीछे नहीं रही, जो उसके जीत की असल ताकत है. बीजेपी के इस ताकत का काउंटर विपक्ष नहीं कर पाता. बीजेपी से मुकाबले के लिए न ही विपक्ष एकजुट होकर लड़ता दिखता है और न ही नैरेटिव को काउंटर करते हुए. ऐसे में बीजेपी के सियासी चक्रव्यूह को तोड़ना विपक्ष के लिए आसान नहीं है.
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