देश सियासत को बदल देने वाली नब्बे के दशक में मंडल-कमंडल की राजनीति को भला कौन भूल सकता है? ऐसे में 2014 से सत्ता में काबिज बीजेपी के हिंदुत्व की काट के लिए कांग्रेस नेता अब एक बार फिर ऑलआउट जाकर 85 फीसदी पर दांव लगा रहे हैं, जिसका बड़ा उदाहरण तेलंगाना के तौर पर सामने आ चुका है.
कांग्रेस की लगातार हुई हार के बाद राहुल गांधी ने 50 फीसदी की सीमा तोड़कर जनसंख्या के आधार पर आरक्षण देने वकालत शुरू की. लोकसभा चुनाव में 2014 और 2019 के बाद 99 सीटें आईं, पार्टी को विपक्ष का नेता पद मिला. ऐसे में नेता विपक्ष बने राहुल गांधी अब बीजेपी के हिंदुत्व से टकराने के लिए इसी राह पर कदम उठा रहे हैं.
तेलंगाना में राहुल गांधी के दबाव में ही आरक्षण की सीमा 50 पार करने का फैसला हुआ, तो वहीं चुनाव के पहले बिहार में सियासी रसूख वाले भूमिहार नेता अखिलेश प्रसाद सिंह को प्रदेश अध्यक्ष पद से दलित नेता राजेश राम को कमान सौंपी गई है. अखिलेश प्रसाद सिंह को लालू का करीबी माना जाता है, लेकिन राहुल गांधी ने उसकी परवाह किये बगैर अपना दांव चल दिया, जबकि राजद भी उसी वोटबैंक को अपना बता रही है.
एससी, एसटी, ओबीसी और माइनॉरिटी वोटों पर नजर
वैसे राहुल गांधी इन बड़े कदमों से पहले भी कर्नाटक में भी जातिगत सर्वे करा चुके हैं. कांग्रेस संगठन के सचिवों और महासचिवों की नियुक्तियों में भी अपने जाति दांव को चल रहे हैं. दरअसल, राहुल गांधी एससी, एसटी, ओबीसी और माइनॉरिटी के 85 फीसद वोटों पर निगाहें गड़ाए हैं.
हिंदुत्व बनाम जाति की सियासत
राहुल गांधी की रणनीति उसी मंडल-कमंडल की राजनीति की याद दिला रही है. अब हिंदुत्व बनाम जाति की सियासत के जरिये मैदान में उतरने को तैयार हैं. इसीलिए ओबीसी का आरक्षण बढ़ाना इसी दिशा में उठाया गया कदम है. आखिर देशभर में राहुल गांधी के संविधान सम्मेलन दलितों को लुभाने के लिए हैं, वक्फ बिल के विरोध में खुलकर खड़े होकर वो अल्पसंख्यकों को अपने पाले में रखना चाहते हैं. कर्नाटक में सरकारी ठेकेदारी में माइनॉरिटी को 4 फीसदी आरक्षण दूसरा कदम है.
राहुल गांधी अब अपनी इस सियासत में लगातार एक कदम आगे की तरफ बढ़ा रहे हैं, वो अपनी ही पार्टी के सवर्ण नेताओं के दबाव की परवाह भी नहीं कर रहे. हालांकि, राहुल गांधी के इस कदम से जाति की राजनीति, मंडल से निकले राजद, सपा, डीएमके, जेएमएम जैसे साथी दल असहज हो सकते हैं.
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