पुष्पा 2 के पावरफुल पंच, पॉलिटिक्स और प्रेम की पीड़ा की बात करूं उससे पहले डायरेक्टर रामगोपाल वर्मा की एक टिप्पणी जरूरी है जो उन्होंने यह फिल्म देखने के बाद एक्स पर शेयर की है. रामगोपाल वर्मा की टिप्पणी पढ़कर साफ लगता है- वो पुष्पा 2: द रुल देखकर हतप्रभ रह गए हैं. रिव्यू लिखने से खुद को रोक नहीं सके. खासतौर पर अल्लू अर्जुन ने उनके दिलों दिमाग पर गहरी छाप छोड़ी है. उन्होंने लिखा है- यह फिल्म सहजता और असहजता का अनोखा मिश्रण है और अपने कमर्शियल मेनस्ट्रीम ढांचे में फिट है. एक किरदार का इमेज स्टारडम से कहीं बड़ा प्रतीत होता हुआ दिखता है. यह अपने आपमें दुर्लभ है. इस किरदार में कई विरोधाभास हैं, वह मासूम है और अहंकार में चूर क्रोधी भी. बावजूद इसके वह वास्तविक लगता है. पूरी फिल्म देखते हुए यह समझना मुश्किल हो जाता है कि किरदार फिल्म को जन्म दे रहा है या फिल्म किरदार को जन्म दे रही है. इसी के साथ रामगोपाल वर्मा इस प्रभाव और अहसास का पूरा क्रेडिट एक्टर अल्लू अर्जुन को देते हैं.
रामगोपाल वर्मा की इस टिप्पणी में फिल्म का पूरा सार समा गया है. पुष्पा महज किरदार नहीं बल्कि एक मानसिक अवस्था है. अहंकार में चूर एक क्रोधी शख्स है लेकिन उसके भीतर का प्रेम भाव मरा नहीं है. पत्नी श्रीवल्ली (रश्मिका मंदाना) के ‘स्वामी’ बोलते ही वह निढाल हो जाता है, भतीजी के ‘चाचा’ संबोधित करते ही वह अंदर से पिघल जाता है, उसे बचाने के लि लिए जान जोखिम में डाल लेता है. डायलॉग भले ही मशहूर है- झुकेगा नहीं…sss लेकिन वह ‘सॉरी’ बोलना भी जानता है. ऐसे ही विरोधाभासी दृश्यों में अल्लू अर्जुन की एक्टिंग चौंका देती है. उसकी अदाकारी में जो आयाम नजर आते हैं वह उन्हें एक बड़े एक्टर के तौर पर स्थापित करते हैं. कला और अभिनय की दुनिया के आचार्य बखूबी जानते हैं कि डार्क मेकअप और ओवर कास्ट्यूम डिजाइन में भी जो कलाकार दर्शकों के दिलों दिमाग में अपनी अदाएं उकेर दें, उनकी परफॉर्मेंस किस लेवल की कही जाती है.
उजड्ड-प्रचंड पुष्पा का प्रेम और पॉलिटिक्स
बहरहाल अल्लू अर्जुन की पुष्पा 2 में निहित प्रेम का पाठ और पॉलिटिकल पंच को समझने के लिए कुछ दृश्यों और प्रसंगों की चर्चा लाजिमी है, जिसे इस फिल्म में प्रमुखता से दर्शाया गया है. पहले चर्चा प्रेम के पाठ की. पुष्पा न झुकता है और ना ही चूकता है. वह मूडी और प्रचंड उजड्ड आदमी है, उसे कोई उत्प्रेरित नहीं कर सकता. उसकी उत्कंठा सर्वोपरि है. वह खुद को फायर नहीं बल्कि वाइल्ड फायर कहता है तो इसीलिए कि उसके भीतर फैले क्रोध की ज्वाला को कोई शांत नहीं कर सकता. वह अपनी जिद पूरी करने के लिए उच्छृंखल बनने को मजबूर है. उसके दिल में जो आता है, वही करता है. दिमाग से ज्यादा अहमियत दिल को देता है. और जो दिल की ज्यादा सुने वह तो दिलदार होता है न, खूंखार नहीं.
वास्तव में पुष्पा एक दिलदार कैरेक्टर है, उसे हालात ने खूंखार बना दिया है. वह प्रेम का प्यासा है. सम्मान का भूखा है. समाज में इज्जत से जीने की तवज्जो चाहता है. लेकिन उसे दूसरों से क्या बल्कि अपनों से भी तिरस्कार ही मिला है. उसका यह दर्द तब उसकी जुबान पर छलक आता है जब उसे पता चलता है कि उसकी पत्नी गर्भवती है. पत्नी कहती है- बेटा हुआ तो…! लेकिन पुष्पा चाहता है- बेटी हो. इसके पीछे उसका तर्क सुनकर किसी की भी आंखों में आंसू आ जाए. पुष्पा कहता है- बेटा होगा तो हमारे ही खानदान को आगे बढ़ाएगा न, लेकिन बेटी होगी तो उसे दूसरे खानदान का नाम मिलेगा. इस डायलॉग में पुष्पा की मूल पीड़ा को महसूस किया जा सकता है, क्योंकि खानदान के नाम पर उसने दंश को सहा है और वही दंश उसे बार-बार उसके भीतर दहन पैदा करता है, जिसकी आग में वह सबको भस्म कर देना चाहता है.
श्रीवल्ली के लिए कुछ भी कर सकता है पुष्पा
पुष्पा 2 का पुष्पा राज अपनी पत्नी श्रीवल्ली से बेइंतहां प्यार करता है. वह दोस्तों के साथ मिशन पर जाने को तैयार रहता है लेकिन श्रीवल्ली अगर उसे उसी वक्त रोके और प्रेम निवेदन करे तो वह इनकार नहीं कर सकता. उसके लिए मिशन से ज्यादा जरूरी है श्रीवल्ली की इच्छापूर्ति. कोई हैरत नहीं कि फिल्म में जो पॉलिटिकल पंच लगाया गया है और जो जंगल की आग फैली है, उसकी बुनियाद श्रीवल्ली और अपने परिवार, खानदान से अटूट प्रेम ही है. पुष्पा श्रीवल्ली को सीएम के साथ अपनी फोटो दिखाना चाहता है, लेकिन जब तत्कालीन सीएम उसकी डॉन इमेज के चलते अपनी सामाजिक मान-मर्यादा का ख्याल रखते हुए उसके साथ फोटो खिंचवाने को तैयार नहीं होता तो वह धनबल-बाहुबल की ताकत से एक दिन राज्य का सीएम ही बदलवा देता है और खुद के साथ-साथ अपनी पत्नी की फोटो भी अपनी पसंद के सीएम के साथ खिंचवाता है. इस प्रकार वह पैसे के बल पर पूरी पॉलिटिक्स को ही बदल देता है.
पॉलिटिक्स के साथ-साथ शासन व्यवस्था पर भी प्रहार
तो ये है पुष्पा राज, पुष्पा राज का रुल और उसका वाइल्ड फायर अवतार. एक सीन में जब उसका टकराव पुलिस से होता है तो पुलिस ऑफिसर उसे समझाते हैं- ऐसे काम छोड़ दो पुष्पा, यहां का रुल बदल गया है. अब पहले जैसा नहीं रहा. तो पुष्पा जो पूछता है, उसका आशय है- जिस पुलिस वाले की पगार हजारों में है उसकी शान शौकत लाखों वाली कैसे हो गई? आखिर ये कौन सा रुल है? इस प्रकार पुष्पा राजनीति के साथ-साथ शासन व्यवस्था पर भी प्रहार करता है. और अपना रूल स्थापित करने की जिद पर अड़ जाता है. बावजूद इसके उसके भीतर का ना तो प्रेम मरता है और ना ही प्रेम की पीड़ा की अनुभूति. पुष्पा प्रेमी है तो पंगेबाज भी. हां, फिल्मांकन में अतिरंजना है, जो कि रामगोपाल वर्मा के शब्दों में ही अपने कमर्शियल ढांचे के मुताबिक है लेकिन अहम एक्टिंग, किरदार और कहानी का आशय है जिसे दिखाने में डायरेक्टर सुकुमार ने सफलता हासिल कर ली है.
फिल्म का सबसे खूबसूरत पक्ष यह है कि पुष्पा चाहे जितना भी खून खराबा करता है, इस मामले में उसकी पत्नी से उसका कोई कांफ्लिक्ट नहीं है. उसे हर कदम पर पत्नी का साथ मिलता है. पत्नी जानती है- पुष्पा इतना पंगा क्यों लेता है, लिहाजा वह उससे सहानुभूति रखती है. पुष्पा भी अपनी पत्नी से उतना ही प्यार करता है. इस प्रकार प्रेम इस फिल्म की कहानी के केंद्र में है.
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