Bilaspur: बिलासा के गोठ जैसी करनी वैसी भरनी, यह कहावत तो सभी ने सुनी होगी। पिछले दिनों इसके अनुरूप एक साहब का हश्र भी हुआ। उन्हें ऐसी जगह भेज दिया गया, जिसे शिक्षा विभाग की लूपलाइन कहा जाता है। उनके जाने के बाद एक बस्तरिया साहब के कंधे पर जवाबदारी सौंपी गई है। उन्होंने प्रभार संभाल भी लिया है।
उनके आगमन के बाद अब चर्चाओं का बाजार गर्म हो गया है। चर्चा इस बात की हो रही है कि विभाग का खेल अधिकारी उनके साथ क्या खेल करने वाला है। साहब को फुल टास गेंद डालेंगे या पहले उनकी स्ट्रेटजी को समझने स्लो गेम खेलेंगे। स्कूलों के खिलाड़ियों को तो क्लीन बोल्ड करके मुंह बंद करवा देते हैं और भोजन, जूते, कपड़े के पैसे डकारने में माहिर हैं। फिर ये तो बस्तरिया साहब हैं, खेल अधिकारी अपनी फिरकी के जाल में जरूर फंसा लेंगे। यहां टिकना है तो साहब को खेल से ही अलर्ट रहना पड़ेगा।
भूखे पेट भजन न होय
छत्तीसगढ़िया सबले बढ़िया यह डायलाग देशभर के कोने-कोने में फेमस है। छत्तीसगढ़ी परंपरा की अलख जगाने छत्तीसगढ़िया ओलंपिक का आयोजन भी कराया जा रहा है। सरकार खिलाड़ियों की कला को उभारने के लिए लाखों रुपये खर्च कर रही है। लेकिन, खिलाड़ियों तक नहीं पहुंच रहा है। अधिकारी ही हजम कर ले रहे हैं। एक सरकारी मैदान में खेलने के लिए खिलाड़ी सुबह से लेकर शाम तक भूखे-प्यासे बैठे थे।
सामने मंच पर नगर निगम से लेकर जिला प्रशासन के अधिकारी भी मौजूद थे। वहां खिलाड़ियों के लिए भोजन की कोई व्यवस्था नहीं की गई थी। जबकि उनके ही सामने जमकर भोजन पानी हुआ। फिर भाषण देकर चले गए। इधर खिलाड़ी मन ही मन बोल रहे थे कि भूखे पेट भजन न होय, पर उनकी सुनने वाले अधिकारी अपनी भूख मिटाने में व्यस्त रहे। आखिरकार भूखे पेट ही खिलाड़ियों को मैदान में उतरना पड़ा और छत्तीसगढ़ी खेलों को जीवंत बनाने में हाथ बंटाया।
शिक्षा की अलख जगा दो
राज्य सरकार की महत्वाकांक्षी योजना स्वामी आत्मानंद स्कूल में गुणवत्ता युक्त इंग्शिल मीडियम में निश्शुल्क शिक्षा को पढ़े-लिखे युवाओं की नजर लग गई है। शहर के सीबीएसई स्कूल व बड़े शिक्षण संस्थानों में ऐशोआराम से पढ़ने वाले युवाओं का चयन संविदा शिक्षक के पद पर सेजेस स्कूलों में हुआ है। तब गरीब परिवार के पालकों के मन में उम्मीद जगी कि हमारे बच्चों को बेहतर शिक्षा मिलेगी।
जब डीईओ कार्यालय से पदस्थापना सूची निकली। इसमें शिक्षकों को ग्रामीण क्षेत्र के दूर-दराज के स्कूलों में भेजा गया। तब पालकों की उम्मीदों पर मानो पानी फिर गया है। ये युवा शिक्षक ग्रामीण अंचलों के सेजेस स्कूलों में ज्वाइन नहीं कर रहे हैं। ऐसे में अच्छी शिक्षा पर प्रश्नचिन्ह लगने लगा है। जिम्मेदार अधिकारी भी हाथ खड़े कर दिया है। इधर स्कूलों के बच्चे हिंदी माध्यम में ही पढ़ाई करने को मजबूर हैं। शिक्षा विभाग के अफसर विभागीय प्रक्रिया में ही उलझे पड़े हैं।
कब छोड़ेंगे चेंबर का मोह
शिक्षा विभाग के मुखिया ने नए सत्र की शुरुआत में प्राचार्यों के साथ एक मीटिंग की। घंटों मंथन करने के बाद हेड साहब के श्रीमुख से एक ही शब्द निकला, बहुत जल्द दौरा करुंगा। इसके लिए क्या प्लान बनाना चाहिए। बीच से एक प्राचार्य ने कहा कि साहब स्कूल आने से पहले सूचना जरूर दे देंगे, ताकि कमजोर कर्मचारियों को पहले से तैनात होने का हुकूम दिया जा सके।
हेड ने तुरंत जवाब दिया कि उसकी फिक्र न करें, बस फोन से संपर्क बनाए रखें। बैठक तो सिर्फ खानापूर्ति है। ऊपर जानकारी पहुंचाने के लिए। बीते सत्र में जिले से कोई भी बच्चों का नाम मेरिट लिस्ट में नजर नहीं आया था। अब तक नए सत्र में साहब चेंबर छोड़ने के लिए तैयार नहीं हैं। अभी तक एक भी स्कूल का दौरा तक नहीं किया है। पढ़ाई की स्थिति मोबाइल से पता लगा रहे हैं और समाधान भी बताया जा रहा है।
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